ग्रहणशील
कुछ काल पहले एक देवी ने मुझे कहा, "अच्छे लोगो के साथ ही ऐसा क्यों होता है। उन्हें ही क्यों दुख भोगने पड़ते है।"
हालंकि मुझे उन्हें बोलना तो बहुत कुछ था परंतु उस समय मेरा बोलना उचित नहीं होता इसलिए में उन्हें ध्यान पूर्वक सुनती रही। उनकी हर एक कही गई बातों को मैने समझने का प्रयास किया।
बहुत सोच विचार करने के बाद मैने सोचा की जो भी उन्होने बोला सिर्फ वो नही वर्ण हर एक मनुष्य के मन में ऐसे ना जाने कितने ही विचार चलते रहते। फिर मैने सोचा क्यों न में इस विष्य में अपने विचार प्रकट करू। हालंकि मुझे कुछ खास अनुभव नहीं है जीवन का ना ही ज्ञान का परंतु जो भी थोड़ा बहुत अनुभव रहा उसके आधार पर में अपने विचार व्यक्त करना चाहूंगी।
ये सत्य है की पृथ्वी माते का मूल स्वरूप तामसिक है परंतु इसके बावजूद मनुष्य स्वयं मृत्युलोक पे रहे कर स्वर्ग व नरक दोनों को ही बहुत सहेज तरीके से प्राप्त कर सकता है। ये सिर्फ एक मनुष्य पे निर्भर करता है की उसकी दृष्टि कैसी है और उसकी विचार करने की क्षमता कैसी है।
अंग्रेजी में एक बहुत ही सुंदर शब्द है Receptive अर्थात ग्रहणशील ये मनुष्य में ऐसा गुण है जो उसकी संपूर्ण जीवनशैली को बदलने में सक्षम है। ग्रहणशील वे है जो बिना कुतर्क और शंका करे दुसरो की विचार धाराओं को समझने का प्रयास करते है। जो व्यक्ति ग्रहणशील है वे नई चीजों को सीखने के लिए उत्सुक रहते है।
परंतु यदि ग्रहणशीलता का आभाव जीवन में हो तो तो मनुष्य ना तो किसी को समझने योग्य रहे जाएगा ना ही वे जीवन के मूल को अनुभव कर पाएगा। वे सदैव अपने जीवन में दुखो से घ्रसीत रहे कर आलोचनाएं करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर पाएगा और उनका जीवन रस हीन हो जाता है।
वही दूसरी तरफ जो व्यक्ति सही रहा पे चल रहा वे भले ही अपने जीवन में कितने ही कष्ट या पीढ़ा देख ले परंतु उसका विश्वास कभी डग मगाता नही है। इसको ऐसा समझा जाए की जबसे हम सीखना आरंभ करते है और ज्ञान ग्रहण करने लगते है तभी से हमारी परीक्षाएं शुरू हो जाती है और हम बालक के रूप में परीक्षाएं देने के लिए उत्सुक रहते है और साथ ही निडर हो कर हर परीक्षा को सहज ही रूप से दे पाते है।
ज्यों ज्यों हम जीवन में आगे बढ़ते और उम्र में आगे बढ़ते तो अधिकांश समय हम भूल जाते की परीक्षा तो हर पग पग पे देनी है क्योंकि ये तो स्वयं परमात्मा की इच्छा है। हम तो भाग्यशाली है की परमात्मा ने हमे क्या कुछ नहीं दिया।
भागवती की कृपा से हम आज मनुष्य योनि में है और ये प्रथम उपहार हमे मिला परमात्मा की और से, फिर हमे बुद्धि-विवेक मिला जिससे हमे कम से कम सही और गलत का बोध हुआ। जिन लोगो को सही गलत का बोध नहीं वे मनुष्य शरीर में होने के बाउजूद किसी पशु से कम नहीं। इस तथ्य को समझने के लिए ये श्लोक उचित रहेगा
येषां न विद्या न तपो न दानं,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
अर्थात
जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म।
वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में मृग/जानवर की तरह से घूमते रहते हैं।
यदि इनमें से आपके पास एक भी गुण है तो आप निश्चित होकर अपने मार्ग में बढ़ते रहे और परीक्षाओं से डरे ना क्यूंकि परीक्षाएं देना हर किसी के बस की नही। और यदि दुख है तो उनसे सीख लेकर अपने जीवन में सुख को उतारने का प्रयास करे जिससे भूलोक पे रहते हुए भी हम स्वर्ग को अनुभव कर सकेंगे।
अगली बार परिस्थितियां यदि आपके कृपादृष्टि में ना हो तो चिंता मत कीजिए और मुस्कुराके उनका सामना करके आगे बढ़ते रहे। याद रहें मूढ़ व्यक्ति को कभी न कहे वे मूढ़ है अन्येथा वे आपको मूढ़ घोषित करने का प्रयास करेंगे और समय बहुत ही कम है इन चीजों में उलझने के लिए।
यदि किसी प्रकार की भी त्रुटि रहे गई हो तो क्षयमाचना!
भागवती जी और कल्कि जी की प्रेन्ना से अपने विचारो को व्यक्त करने का साहस मिला और ये छोटा सा प्रयास किया।
ॐ नमः शिवाय जी 🙏
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